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इलाज़
दीनू हुक्का गुडगुडाते हुए बेतहासा ख़ास रहा था ,बेचारा बहुत हतास एवं बेबस लग रहा था। पास में चारपाई पर उसकी घर वाली बुखार से ताप रही थी। दो दिन से पेट में कुछ नहीं गया था, पानी के सहारे जिन्दा थी।
दीनू बडबडा रहा था, ” न जाने कौनि छूति लागि हवे की एकौ पैसा बचते नहीं की, ससुरी का दवाई दिलवाई देई। चौराहे वाले डाक्टर बीस रुपैया से नीचे तौ बाते नहीं करत हवे।”
बच्चू दूर खड़ा अपने बापू को बडबडाते हुए बड़े ध्यान से सुन रहा था.
दीनू ने पुकारा, ” अरे बच्चू तमाखू ख़तम हवे कल सुबेरे की खातिर बिलकुल नहीं बची. ई तीन रुपया लेव लाला की दुकान से तमाखू लै आव नहीं तो मुधेरे तुमका रतौधीन के मारे देखाई न देई .”
बच्चू अर्थ पूर्ण नजरो से अपने बापू की तरफ निहारता हुआ बोला , ” बापू गुस्साओ न तो बताई, हमका एकु उपाय सुझा हवे , सबका इलाज होइ जाई ”
“.का।” दीनू के मुह से बरबस निकल गया।
“बापू अगरचे तुम कल हुकका न पियो तो इनही तीन रुपया से गंज वाले सरकारी अस्पताल में परचा बनवाई कै अम्मा की बुखार की , तुम्हरी मरी खासी की, साथ म हमरी रतौधिन ……. की दवाई मिल सकत हवे।” झिझकते हुए पूरी बात कह पाया था।
दीनू ने एकटक अश्रु पूर्ण नजरो से बच्चू की ओर देखा जैसे बहुत कुछ समझने का प्रयास कर रहा हो। अचानक तेजी से हुक्का दूर फैककर भाव विह्वल हो बच्चू को अपनी छाती से लिपटाता हुआ बोला ” हाँ, बच्चू। हमार बिटवा तूने तो हमै जीने का रास्ता ही दिखाय दियो।”
बच्चू मन ही मन बुदबुदाया , ” मेरे अच्छे बापू।”
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