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ईश्वर की प्राप्ति का साधन।

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ईश्वर की प्राप्ति का साधन।
ईश्वर की आराधना कई भावों से एवं कई रूपों में ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वालों ने की है। किसी ने बाल रूप की स्नेहल भाव से। किसी ने सखा रूप की मित्रता की भावना से। किसी ने स्वामी रूप की दास की भावना से। किसी ने परमपिता के रूप की पुत्र -पुत्री की भावना से। किसी ने पति रूप की प्रेयसी की भावना से। किसी ने सत्रु संहारक के रूप की आर्त भाव से। किसी ने साकार रूप की सेवा भावना से। किसी ने निराकार रूप से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास किया। किसी ने इन्द्रिय जनित ज्ञान से ईश्वर को जानने का प्रयास किया। किसी ने भक्ति भाव से अपने आप को ईश्वरीय भाव में विलीन कर दिया। किसी ने ईश्वर को महान न्यायविद माना जिसकी अदालत में देर है अंधेर नहीं उसके पास सभी के अच्छे बुरे कार्यों का लेख जोखा है। किसी ने इश्वर को केंद्रीय सत्ता माना है, तो किसी ने सर्वब्यापी माना है अर्थात ईश्वर को कण कण में ब्याप्त माना है।किसी नें विश्व की समस्त क्रियाओं एवं घटनाओं का हेतु ईश्वर को ही माना है। किसी ने ईश्वर को ही स्रष्टि रचयिता, पालक एवं संहारक माना है। यहाँ तक कि लोगों ने ईश्वर को शत्रु मानकर बैर भाव से भी ईश्वर को प्राप्त किया है। मैं अल्प बुद्धि ईश्वर के सभी रूपों का बखान नहीं कर सकता।
ईश्वर के सभी सभी रूप प्रशंसनीय हैं, वन्दनीय है, कल्याण कारी है, अद्वतीय हैं। जो वाकई ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखता है वह उसके किसी भी रूप के प्रति अश्रधा नहीं रख सकता। ईश्वर को वही प्राप्त कर सकता है जो उसके होने में विश्वास रखता है। वह उसके जिस रूप को भी सत्य माने और जिस भाव से भी उसे प्राप्त करना चाहता है उसकी पराकाष्ठा को प्राप्त करना ही ईश्वर को प्राप्त करने की पहली और अंतिम शर्त है। कहा गया है की “दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम”। कहने का तात्पर्य यह है की या तो आप माया को ही अंतिम सत्य माने या फिर माया को बनाने वाले को अंतिम सत्य । जो माया को बनाने वाले को अंतिम सत्य मानता है वह माया को साधन एवं ईश्वर को साध्य मानता है।
आप ईश्वर के किस रूप में विश्वास कर सकते है कृपया इस तरह समझने का प्रयास कीजिए।
मैंने अपने जीवन में सर्वोच्च प्राथमिकता अपने माता पिता को दिया इससे स्पस्ट है कि मै इश्वर के जन्मदाता, पालक , संरक्षक रूप में विश्वास कर सकता हूँ, सहज बाल भाव से उससे प्यार कर सकता हूँ, उसे पुकार सकता हूँ। दूसरी प्राथमिकता मैंने हमेशा अपने बच्चों एवं विद्यार्थियों को दी, इससे यह स्पस्ट है की ईश्वर के बाल रूप में विश्वास कर सकता हूँ अतः एक अच्छे माता पिता एवं एक अच्छे अध्यापक के भाव से उसकी आराधना कर सकता हूँ। तीसरी प्राथमिकता मैंने अपने अपने परिवारी जनों एवं अपने मित्रों को दिया इससे स्पस्ट है कि प्यार एवं सहयोग की भावना से मैं ईश्वर की आराधना कर सकता हूँ। जो वसुधैव कुटुम्बकम की भावना रखता है वही परिवार का अर्थ समझता है। जिसके मन से बैर भाव ख़त्म हो चुका है वही
मित्रता की परिभाषा समझाता है। जो अपने पराये में उलझा है वह सत्य की गहराई तक नहीं पहुंच सकता। चूकि मेरे मन में किसी के प्रति भी बैर भाव नहीं है, अतः बैर भाव से मैं ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। चूकि कर्मकांड में मेरी रूचि नहीं इसलिए स्पस्ट है मात्र मूर्ति पूजा से मैं ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता लेकिन चूकि मेरी ईश्वर के किसी भी रूप से अश्रधा नहीं है अतः मूर्ति पूजा से भी परहेज नहीं है वहां पर साधना का वातावरण तो रहता ही है। इसी तरह यदि अपने मन के भावों एवं ईश्वर के विभिन्न रूपों का विश्लेषण कर किसी निष्कर्ष पर पहुँच कर उसकी पराकाष्ठा को प्राप्त करें तो इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति कर सकते हैं।
मेरी साधना:- मेरा यह विश्वास है कि हर किसी के अन्दर एक मासूम बालक सोया हुआ है, जिसका उम्र एवं उसके उसूलों से कोई लेना देना नहीं है। जरुरत है उसे जगाये रखने की। हर किसी के अन्दर एक माता पिता एवं गुरू बैठा है जरुरत है तो अपने बच्चों की देखभाल करने की बच्चों से तात्पर्य ईश्वर की संतानों से।
आज से सभी या तो मेरे माता, पिता, गुरु समान या फिर बच्चे और विद्यार्थी समान।
सबसे पहले तो मेरी कोशिश यह रहेगी कि एक व्यक्ति के प्रति ही माता, पिता, बंधू, सखा, पुत्र, पुत्री, विद्यार्थी इत्यादि सभी भावों को रख सकूँ। तभी मै ईश्वर के प्रति यह भाव रख पाउँगा:
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।। अब अपने जीवन में इसी भाव की पराकाष्ठा पर पहुंच कर इसी जीवन में ईश्वर प्राप्ति की कामना है।
ॐ शांति: शांति: शांति।।

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